Samadhan Episode – 000929 Moral Problems

CONTENTS:

1. क्रोध से क्रोध को समाप्त नहीं किया जा सकता |

2. इन्सान के पास जो होगा, वही वो दूसरो को दे सकेगा |

3. मानव जीवन को हमे कैसे जीना है ?

बी.के. गीता दीदीजी

एक पौराणिक कथा के अनुसार, महर्षि भृगु एक बार वैकुण्ठ की यात्रा पर गये, उन्हें निमंत्रण मिला

था वहाँ का. जब वे वहां पहुंचे तो क्रोधित हुए क्यूंकि उनके स्वागत की कोई व्यवस्था नहीं की गई

थी. उन्होंने देखा जो वैकुण्ठ के नाथ हैं विष्णुजी, वे आराम से सोये हुए हैं. उन्होंने गुस्से में एक लात

उनके सीने पर मार दी.विष्णुजी एकदम से उठे और उनका पैर पकड लिया. उन्होंने बड़ी विनम्रता से

कहा कि मेरा सीना बहुत कठोर है, आपका पैर बहुत कोमल है, कहीं आपको चोट तो नहीं लगी,

लाइए मैं इन्हें दबा हूँ. प्रेमपूर्वक बातें सुनकर उनका गुस्सा शांत हो गया. थोड़ी देर वैकुण्ठ में रहे फिर

वहाँ से चले गये. लक्ष्मीजी ये सभी बातें देख रही थीं, उन्होंने कहा कि इतनी बड़ी बात हो गयी और

आपने गुस्सा नही किया? तब विष्णुजी ने बहुत सुन्दर बात कही कि क्रोध से क्रोध को समाप्त नहीं

किया जा सकता, क्रोध को तो प्रेम से ही जीता जा सकता है. अगर देवात्माएँ भी क्रोध करने लग

जाएँगे फिर देवात्माओं और सामान्य मनुष्यात्माओं में क्या अंतर रह जायेगा!!

यूँ तो देवात्माएँ बहुत महान होती हैं, विष्णुजी ने एक बहुत सुन्दर परिचय दिया है. आज व्यक्ति

अपने जीवन में ये नहीं ला पाता है. यदि कोई व्यक्ति कुछ करता है तो दूसरा व्यक्ति उसका

प्रतिउत्तर क्रोध से ही देता है!

अगर खुद में शांति नहीं है, प्रेम नहीं है, तो कैसे उसका प्रतिउत्तर शांति या प्रेम से करेंगे? इन्सान के

पास जो होगा, वही वो दूसरो को दे सकेगा. अगर उनमे ही विशालता नहीं है दूसरो को समझने की,

दूसरों को सहन करने की सहनशक्ति नहीं है, मन में शुभभावना नहीं है तो naturally हम प्यार से

प्रतिउत्तर नहीं दे सकते हैं. ये जो पौराणिक कथा बताई गई हैं देवताओं और ऋषियों के सम्बन्ध में,

वास्तव में देवतायें कोई गुस्सा नहीं करते, और इतने सिद्ध ऋषि के भी गुस्सा करने की बात नहीं

है. पर इन सब कहानियों के आधार पर हमे सिखाया जाता है कि मानव जीवन को हमे कैसे जीना है.

गुस्सा करने से तो बात और ही बिगडती है. मैं आप पर गुस्सा करूंगी आप मुझपर गुस्सा करेंगे, तो

ये साइकिल फिर चलता ही रहेगा. और इतना बढ़ जाता है कि पीढ़ी दर पीढ़ी चलता है. हमने देखा है

कि ये गाँव गाँव के बीच हिंसा, वैर की भावना चलती रहती है. जब ऐसे गुस्से की भावना चलती

रहती है तो व्यक्ति अपनेआप पर संयम नहीं रख पाता है. क्यूंकि वह अपने अंदर शांति, प्रेम भरने

का प्रयत्न ही नहीं करता. इसीलिए यहाँ राजयोग सिखाया जाता है, क्योंकि आजकल शारीर को

स्वस्थ बनाने की क्रियाएँ हैं, आसन हैं. परन्तु मन और बुद्धि को शुद्ध और शांत बनाने का अभ्यास

जब तक हम नियमित रूप से नहीं करते हैं, तबतक वो गुण हमारे अंदर विकसित नहीं होते हैं. हमारे

व्यक्तित्व में शांति और प्रेम नहीं आता है. इसके लिए हमे रोज़ का अभ्यास चाहिए.

यदि हम जेल में भी जाते हैं तो भी यही सुनने में आता है कि थोड़े समय का गुस्सा था, अगर सहन

कर लेते तो शायद आज ये स्थिति नहीं होती! कई बार इतना करने के बाद भी उन्हें ये महसूस भी

नहीं होता है कि हम से कोई गलती हुई है. दुःख भी पाते हैं क्यूंकि मन में गुस्सा भरा है. मानलो

एक व्यक्ति है किसी लड़की के प्रति गलत दृष्टि रखता है, परेशान करता है. फिर लड़की के भाई या

परिवार वाले उस लड़के को मार देते है या दूसरा कोई दंड देते हैं, इससे परिवारवाले भी सज़ा पाने की

स्थिति में आ जाते हैं. शुरुआत में तो उन्हें लगता है कि हमने सही किया है, परन्तु अगर इन बातों

को अगर शांति से सोचें तो चलो उसने गलत दृष्टि और हरकत की, वो गलत है, उसने खराब कर्म

किया है. पर हमने गुस्सा करके भी कोनसा सही किया है. गलत बात से गलत बात को ठीक नहीं

कर सकते. अगर हमे गलत बात को सही करना है तो हमे धीरज रखना है अच्छे गुणों को बनाए

रखना है. जब बात सामने आती है तभी तो हमे प्रेम और शांति बनाए रखनी होती है, normally तो

हर कोई शांति और प्रेम से रहता है. जब कभी ऐसी बात होती है तब ही तो संयम रखना है, अपने

विवेक को सलामत रखना है.

कई लोग ऐसा भी सोचते हैं कि अगर हम सहन करेंगे या दबेंगे तो वे हमपर और भी हावी होते

जायेंगे, तो क्यूँ न उनको ठीक कर दिया जाये! हो सकता है उनके ठीक करने का तरीका अध्यात्मिक

तौर पर सही न हो, पर आमतौर पर ये सोच रहती है.

ठीक करने के तरीके और भी हैं. अगर आज हम किसी को मारते-पीटते हैं, इससे उनका संस्कार तो

ठीक नहीं होता! ऐसी आत्माएं उन्ही संस्कारों के साथ फिर जनम लेती हैं, फिर वही कर्म करती हैं. तो

उनकी आदतें, उनकी प्रवृत्ति, वृत्ति, संस्कार खराब हैं, वहां परिवर्तन लाने की आवश्यकता है. महात्मा

बुद्ध ने भी कहा है कि वैर से वैर नहीं मिटते हैं, सनातन मैत्री भाव ही वैर को खत्म कर सकता है.

आज हम इतने भयानक, हिंसक प्राणियों को भी वश करते हैं, उनसे जो चाहे वो काम लेते हैं, तो

इन्सान, इन्सान को वश नहीं कर सकता क्या? वहां भी हम प्यार apply कर सकते हैं. बेशक आपको

कुछ कदम उठाने हैं, आप कायदे से उठाइए, क़ानूनी कार्यवाही करिये, बड़ों कि मदद लीजिये. पर यदि

हर कोई अपनेआप में कायदा उठाने लगेगा तो फिर समाज ही नहीं रहेगा.

सुप्रीमकोर्ट ने भी इस विषय में संज्ञान दिया है कि आमतौर पर भीड़ इकठी होती है और किसी को

मार दिया जाता है.

हम भी ऐसा क्यूँ करें, छोटे बच्चों से भी भूल होती हैं हम उन्हें मार देते हैं, कुछ शब्द बोल देते हैं.

आपस में भी एक दूसरे को कुछ बोल देते हैं. इसका मतलब तो यही है कि हमारे अंदर भी तो वो

विकृति आ ही गई है, हम भी तो उसी लाइन में खड़े हो गये, उसी level पर आ गये. फिर हम उन्हें

सही बात कैसे पढ़ा सकते हैं. कीचड़ को कीचड़ से साफ नहीं किया जा सकता, इसके लिए हमे निर्मल

जल बनना पड़ेगा.

मैं चार साल से विद्यालय से जुडी हुई हूँ, पर मेरा अमृतवेला योग नहीं हो पाता. Regular क्लास

attend करती हूँ, पर योग में मुश्किल आती है. अभी मैंने नया-नया काम भी शुरू किया है, इसकी

वजह से मेरा योग टूट जाता है और ध्यान वहाँ चला जाता है. मैं कैसे अपने कर्म और योग का

बैलेंस रखूं?

सत्य ज्ञान मिला है तो naturally ये इच्छा रहती है कि हम ज्ञान योग के अभ्यास से परिपक्व बनें.

अब बहुत सारी जिम्मेवारियां है, कारोबार है, उसकी वजह से अभ्यास कम होता होगा. और जैसा

आपने कहा नया buisness शुरू किया है तो ध्यान भी वहाँ चला जाता होगा. यदि ये समझते हैं कि

जिम्मेवारियां उठाने से हमारा योग कम हो जाता है, जिम्मेवारियां या प्रवृत्ति में रहने से हमारी

एकाग्रता नहीं हो पा रही है, तो ऐसा नही है. इन्सान को जीवन में काम तो करना ही है. आज हम

विद्यालय में देखते हैं जो वरिष्ठ भाई-बहनें, दादियाँ हैं, हर कोई अपनी जिम्मेवारी संभाल रहा है.

और दिन-प्रतिदिन सेवा तो बढती ही जाती है. पर अंदर की लगन निरंतर एक परमात्मा के साथ बनी

रहे, ये मुख्य बात है. आज एक व्यक्ति को किसीसे घनिष्ट प्यार है, वो कहीं भी जायेगा उसका

अंदरूनी link उस प्रिय व्यक्ति के साथ बना ही रहता है. तो परमात्मा के साथ मन-बुद्धि एकाग्र करने

का आधार प्यार है. भक्ति में मन भटकता था क्यूंकि हम स्वयं को या परमात्मा को नहीं पहचानते

थे, अनेकों को याद करते थे इसलिए हम एकाग्र नहीं हो पाए. पर आपको तो ईश्वरीय ज्ञान मिला है,

बुद्धि में स्पष्टता है कि हम कौन हैं परमात्मा कौन है. हमारा अंदरूनी जुडाव तो परमात्मा के साथ

जुडा ही रहता है. ये एक आन्तरिक लगन की बात है. हमारा एक लक्ष्य बन ही जाता है, कि जीवन

के लिए बेशक हमको प्रवृत्ति करनी है, कमाना है जिम्मेवारियां उठानी है, परन्तु ultimate हमारे जीवन

का जो ध्येय है कि उस पिता की याद में मन को इतना आन्दित रखना है, उस पिता की याद में

मन को सदा शुभ और श्रेष्ठ बनाये रखना है. अगर थोडा सा time-mangement करेंगे, क्यूंकि और

कोई बात में तो बुद्धि जा ही नहीं रही, सिर्फ निम्मित आवश्यक नौकरी में लगे हैं. ज्ञान नहीं होता

तो अनेक व्यर्थ बातों में मन लगा रहता, वहाँ से तो हमने अपनी मन-बुद्धि को हटा ही लिया है.

एसा आपको शुरू में लगेगा क्यूंकि कोई नयी चीज़ शुरू करने में आपको ध्यान तो देना ही पड़ता है.

पर इसका महत्त्व समझकर के अगर एक घंटा भी हम सुबह शाम देते हैं, तो एकाग्रता न हो एसा

नहीं हो सकता.

कई बार हम कर्म conscious हो जाते हैं, हमारा सारा focus उसी पर रहता है, कई बार यह कह भी

दिया जाता है कि एक बार में एक ही जगह ध्यान लगाओ. फिर काम पर ही ध्यान लगा देते हैं तो

ऊपर का ध्यान छूट जाता है.

जब हम कोई नयी चीज़ शुरू करते हैं तो शुरू में हमे ध्यान देना होता है, पर इससे कोई हमारा योग

टूट नहीं जाता है. हम अंदर से बाबा के साथ committed हैं, निश्चयबुद्धि हैं, उनको पहचान लिया है,

तो अगर हम कार्य पर ध्यान भी देते हैं तो इससे कोई योग टूट नहीं जाता है. आगे पीछे हो सकता

है. जो बहुत sincere हैं उनको थोडा ज्यादा लगता है कि योग नहीं लग रहा है, अंदर वो

consciousness बनी रहती है पर हमे कई बार वहां भी adjustment करना ही पड़ता है. कभी जब सेवा

ज्यादा है तो हमे ज्ञान योग की class छोड़ना होता है. उसके बाद भी जो time मिलता है, उस समय

हम खुद को सम्भाल लें. अगर इस तरह अपनी दिनचर्या set करेंगे तो हो जायेगा.

कार्य के शुरुआत में भी योग किया जा सकता है, अंत में भी किया जा सकता है. हो सकता है सारे

समय ग्राहक न आते हो, उस समय भी योग किया जा सकता है. जब भी हम भोजन करते हैं या

थोडा सा भी कार्य में change आता है, तो 1 सेकंड में अपने अंदर चले जाएँ, परमात्मा को याद कर

लें. तो फ़िर से हम connect हो ही जाते हैं. अगर अंदर की लगन है तो सब सहज हो जाता है.

अमृतवेला योग नहीं लगता है, या उठ नहीं पाते हैं, या योग कमजोर होता है, कईयों के ये प्रश्न रहते

हैं.

अमृतवेला एक बहुत ही महत्वपूर्ण धारणा है, और उसका हमारी दिनचर्या, हमारी मानसिकता, हमारा

आहार-विहार और दिनभर हमारी किस प्रकार की प्रवृत्ति रही है, इन सबके ऊपर इसका आधार रहता

है. अगर हम दिनभर बहुत ज्यादा बाह्यमुखी हैं, बीच-बीच में थोडा सा भी अभ्यास नहीं है, तो

naturally दिनभर के कर्मो का असर भी उस पर आता है. दिनभर हम जिन बातों में व्यस्त रहे, तो

वो ही विचार हमे बार-बार आएंगे. पर अगर हमारी दिनचर्या सात्विक है, अन्तर्मुखी है, बीच-बीच में

1-2 मिनट हमारा अभ्यास होता रहे, contact होता रहे, अपने ओरिजिनल स्वरुप के साथ या

परमशक्ति परमात्मा के साथ, तो फ़िर work-conscious नहीं रहते हैं, और अमृतवेला के लिए हमारा

मन अंदर से prepared ही रहता है. कई बार ऐसा भी लगता है कि आराम नहीं मिलता है इसलिए

हमारा योग नहीं लग रहा है. परन्तु उसमे भी जितना आप quality निंद्रा करेंगे, ऐसा नहीं कि आकर

थककर के सो गये. अगर उस समय ही अपने मन को समेट के, detach कर के 4-5 मिनट बाबा को

याद करके सोयेंगे तो कम आराम में भी पूरा आराम का अनुभव होगा.

आजकल कई सारे लोग देर रात तक काम करते हैं, पार्टी में रहते हैं, उसके बाद सुबह देर तक सोते

रहते हैं. ये एक दिनचर्या सी हो गई है, हालाँकि अध्यात्म इसे स्वीकार नहीं करता, पर क्या विज्ञान

भी ऐसा कहता है कि सुबह का कुछ महत्व है जिसके कारण हमे सुबह जल्दी उठना चाहिए?

बिलकुल, जो nature है, प्रकृति के पाँचों तत्व हैं वो इतने शुद्ध और सात्विक होते हैं कि उससे हमें

बहुत energy मिलती है. मैंने इतना तक पढ़ा था कि जो हमारे famous संगीतकार होते हैं, उन्होंने कहा

है कि early morning हम एक बार भी रियाज़ कर लेते हैं, जितना हम दिनभर में 8-10 बार भी कर

लें तो भी इतना perfect हम नहीं सीख सकते हैं. उन्होंने खुद अपना अनुभव अख़बार में बताया था.

तो इससे पता चलता है कि अमृतवेला सिर्फ अध्यात्मिक व्यक्तियों के सम्बन्ध की बात नहीं है,

हमारे बुज़ुर्ग भी हमे यही कहते थे कि सुबह जल्दी उठ कर पढोगे तो याद रहेगा. आयुर्वेद भी यही

कहता है कि सुबह खाली पेट यह दवाई लेंगे तो जल्दी असर होगा. सुबह का वातावरण इतना शुद्ध,

सात्विक, पवित्र होता है, और हम खुद भी आराम कर के उठते हैं तो तन-मन भी fresh होता है तो

उस समय का हमारा योग का अभ्यास हमे दिनभर के लिए natural योगी बना देता है. ये most

important time है, हम थोडा इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए दिनचर्या को बदलें, रात को जल्दी

सो जाएँ, सुबह जल्दी उठें.

क्या अपने अंदर की जो कलाएं हैं जैसे आपने संगीतकारों कि बात कही, चाहे students अपनी पढाई

के लिए, या कोई अपनी कला के विकास के लिए हो, तो क्या ये समय उनकी मदद कर सकता है?

उस समय हम आराम कर के उठते हैं तो मन-बुद्धि बहुत फ़्रेश होते हैं, उस समय हमारे में ऐसा

कोई input नहीं गया है, बुद्धि भी हमारी साफ़ होती है, तो उस समय हम जो पढ़ेंगे, लिखेंगे, अभ्यास

करेंगे, सुनेंगे तो वो पूरा हमारे अंदर धारण हो जाता है.

कई विद्यार्थी ऐसा लिखते हैं कि रात को हमें कितना भी देर तक पढ़ा लो पर सुबह उठकर हम नहीं

पढ़ सकते हैं. सुबह हमारा mind बिलकुल dull रहता है, काम नहीं करता है, सोने की इच्छा होती है,

तो ऐसे विद्यार्थियों को क्या कहें?

उनका तो cycle ही उल्टा है, रात को देरी से सोयेंगे तो सुबह केसे fresh होंगे! अगर वो थोडा लक्ष्य

बनाकर जल्दी सो जाएँ, तो हो सकता है कि एक सप्ताह तक आपको थोडा नींद ना आये क्यूंकि

आपको habit पड़ी हुई है. कहते भी हैं mind और body, ये दोनों ऐसी चीज़ हैं कि जिस प्रकार से आप

ढालना चाहें उस प्रकार से ढाल सकते हैं. शुरुआत में जिस प्रकार से हम habituated हैं, आदत है और

उसमे change लाते हैं तो तकलीफ होती है. पर यदि हम दृढ़ता से अभ्यास करते हैं, तो मन और

शरीर उस रीती से भी अभ्यासी हो जाता है. हमारा अनुभव भी यही है कि ईश्वरीय ज्ञान से पहले हम

भी चार बजे नहीं उठते थे. पर जब इस बात की importance समझी, कि ये time तन-मन के लिए

best है, फिर हमने थोड़ी मेहनत की तो आज वो natural हो गया.

आपके विचार से कितने बजे सो जाएँ, और कितने बजे उठ जाएँ?

हमारा ये अनुभव है कि अगर आप 10-10.30 बजे भी सो जाते हैं, तो भी सुबह 4 बजे आराम से

उठ सकते हैं.

ओमशांति

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